प्रस्तावना

नाम क्या है ? नाम में क्या है ? क्या नाम का कोई महत्व है ? नाम क्यों रखते है? कैसे रखते हैं? कैसे नाम रखना चाहिये ? कैसे नाम नहीं रखना चाहिये ?

इन्हीं प्रश्नों से मेरा सामना होता रहा बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों से लेकर, इक्कीसवीं सदी के एक युग (बारह वर्ष) बीत जाने तक नाम को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। नाम बस नाम है, मूल चिन्ह है, नाम को मंत्र कहा गया है। (नमन्त्येभिरीश्वरम्) नाम के द्वारा ही ईश्वर को नमन किया जाता है। नाम के साथ यश, सम्मान, कीर्ति, सौंदर्य बोध, सफलता, गरिमा, गौरव, प्रताप और अनुराग जुड़े रहते हैं। ‘नाम्नैव कीर्ति लभते मनुष्यः', नाम से ही मानव कीर्ति अर्जित करता है। नाम सब से संक्षिप्त अभिव्यक्ति होती है।

परिचय और पहचान के लिये नाम का जानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। सबसे पहले हम व्यक्ति का नाम ही पूछते हैं, कहां जाना है, पूछ कर स्थान का नाम जानते हैं। किससे मिलना है? प्रश्न से व्यक्ति का नाम पूछते हैं। क्या चाहिये ? प्रश्न से वस्तु का नाम जानना चाहते हैं।

नामकरण की प्रक्रिया सतत जारी रहती है। आज भी नगरों, मोहल्लों, इमारतों, बाजारों, कारखानों, टाकीजों, भवनों, तालाबों, बाग बगीचों, गाय, बैल, कुत्ते, बिल्ली, पशु-पक्षी सभी का नामकरण हो रहा है।

व्यक्ति का नाम है तो वह व्यक्ति है। नाम से ही नामी की पहचान होती है। जो नामी जितना बलवान होता है उस नाम में उतनी ही शक्ति होती है। राम से राम का नाम बड़ा है।

"कहाँ कहाँ लगि नाम बढ़ाई, रामु न सकहि नाम गुन गाई।

समझने में नाम और नामी दोनों एक से है। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि है। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं और नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुन्दर साक्षी है और नाम ही, दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है।

'अगुन सगुन बिध नाम सुसाखी, उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।’

नाम विशेष रूप से व्यक्ति नाम, अपने आप में सार्वभौमिक होते हैं। वे अपने आप में विशिष्ट होते हैं। व्यक्ति परक होते हैं और उनका इतिहास होता है।

नाम जब भी रखा जाता है वह सुविधा और रागात्मक संबंध के कारण रखा जाता है। नाम के साथ सबको मोह होता है। अपनत्व होता है, प्रेम और गौरव होता है और यह सब होने के कारण हम सामान्य रूप से तर्क नहीं करते। इसका यह नाम क्यों रखा गया? कब रखा गया ? किसने रखा ? व्यवहार में बराबर चलता रहता है। नाम जो भी हो उसे स्वीकार कर लेते हैं।

नाम के भाषागत अर्थ पर हमारा ध्यान नहीं जाता । प्रायः लोग अपने नाम का अर्थ नहीं जानते। भाषिक अर्थ बतलाने के प्रयत्न में अटकलें लगाते हैं।

हम स्वयं अपना नाम नहीं रखते। हमारा नाम माता-पिता ने या हमारे अपने लोगों ने रखा होता है। उनका ध्यान जिस किसी तथ्य की ओर जाता है और वे जिन कारणों से प्रभावित होते हैं तथा उनका ज्ञान और सौंदर्य बोध जिस प्रकार का होता है उन उन आधारों पर ही उन्होंने नाम रखा होता है।

नाम मूलतः किसी भी भाषा से संबद्ध रहे उसका व्यवहार सभी भाषा-भाषियों को करना होता है। अलग-अलग भाषाओं के उच्चारण का प्रभाव तत्काल परिलक्षित हो सकता है। प्रयास यही रहता है कि उस नाम को उसी रूप में लिखें, उसी तरह का उच्चारण करें और व्यवहार भी उसी तरह का हो। इस व्यवहार में अन्य भाषा-भाषियों को कठिनाई का अनुभव होता है। उच्चारण लेखन व्यवहार की सुविधा के लिये अन्य भाषा भाषियों को कठिनाई का अनुभव होता है। इस के लिये अन्य भाषा भाषी लोग ध्वनि परिवर्तन कर देते हैं।

हमारा नाम कोई गलत लिखे या गलत ढंग से उच्चारित करे तो हमें बुरा लगता है। नाम का आदर होना चाहिये। यह तभी संभव है जब हम ध्वनिगत रूपों और उनके ठीक-ठीक उच्चारणों की प्रवृत्तियों से परिचित हों। सही उच्चारण के लिये प्रयत्न होने चाहिये।

उच्चारण की सुरक्षा के लिये भाषाओं के विशेषज्ञ विशेष-विशेष चिन्हों का प्रयोग करते हैं, किन्तु उन्हें भाषाओं के विशेषज्ञ ही जान सकते हैं। 'नाम' का व्यवहार तो जन समूह ही करता है। सब लोग अपने ढंग से ही नामों का उच्चारण करते हैं। बंगाली मोशाय अनिल को ओनील बोलते हैं।

यदि किसी के सुनने में नाम न आये और वह केवल दूसरी भाषा की लिपि में ही उस नाम को पढ़ता है तो उस नाम का उच्चारण और लिखित रूप हास्यास्पद बना देता है। एक व्यक्ति ने अपने पोते के नामकरण संस्कार की पार्टी में आमंत्रित किया। एक सुन्दर फलक पर सुन्दर अक्षरों में देवनागरी में शिशु का नाम उकेरा गया था - कनव। मैंने पूछा- भाई, यह नाम कैसा है? क्या अर्थ है इसका ? उन्होने बताया हमारी बेटी ने किसी नाम की पुस्तक से यह नाम चुना है, रोमन में नीचे लिखा था 'Kanav'। रोमन लिपि में हिन्दी भाषा लिखने जैसी उदारता का सवाल है इसमें ​अंग्रेजी की कोई हानि नहीं पर हिन्दी भाषा के उच्चारण की दृष्टि से शब्द की हास्यास्पद स्थिति हो जाया करती है। मेजबान की पत्नी को कुछ याद आया- 'शायद किसी ऋषि का नाम है।' तब समझ में आया- बेटी ने रोमन लिपि में लिखी भारतीय नामों की पुस्तक के 'कण्व को 'कनव' करके सुझाया था। बेचारे कण्व मुनि अपनी भारतभूमि में अपने ही लोगों द्वारा रोमन लिपि की महिमा से कनव लिखे जाकर सुशोभित हो रहे थे। बहुत से नामों का अर्थ हम इसलिये नहीं बतला सकते कि हम नामकरण से अपरिचित होते हैं। नामकरण के अनेक कारण हो सकते हैं।

नाम नाम होते हैं. इस नाते नामों का अनुवाद नहीं हो सकता। मेरा नाम त्रिवेणी है। यह नाम मराठी, बंगला, तेलगु, किसी भारतीय भाषा में ही नहीं अपितु विश्व की किसी भी भाषा में इसी नाम से जाना जायेगा। भाषा बदलने में नाम का अनुवाद नहीं किया जाता। एक ही नाम का व्यवहार सब भाषाओं में होता है। फिर भी भौगोलिक और ऐतिहासिक कारणों से नाम के उच्चारण वर्तनी- अनुकरण लेखन-वाचन-मनन-चिंतन व्यवहार में परिवर्तन होता रहता है। नाम चाहे किसी अन्य भाषा से स्वीकार भी कर लें किंतु उच्चारण वर्तनी और व्यवहार उसका सब कुछ अपनी भाषा प्रकृति के अनुसार होता है।

नामकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम अपने ज्ञान, सौंदर्य बोध, विश्वास एवं गरिमा गौरव का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। नामकरण को लेकर प्रियजनों में विवाद भी होता है। एक साथ दो-दो या चार-चार नाम रख दिये जाते हैं। प्रत्येक नामकरण में मनुष्य की बुद्धि का योगदान है। यह योगदान ऐसा है जिसने शब्दों को अर्थ प्रदान किया है। अर्थ शब्द की आत्मा है। नाम का अर्थ होना ही चाहिये। शब्द और अर्थ का संबंध उस देश और जाति की संस्कृति और विचार पद्धति से होता है। नाम का शब्दार्थ बेतुका लगता है यदि उसका संदर्भ मालूम न हो। नाम और नाम के अर्थ के साथ जूझना एक कठिन सांस्कृतिक कार्य है। अपने नाम का अर्थ जानने का प्रयास करना भाषा विज्ञान के अध्ययन का एक भाग है। नामों को पहचानेंगे तो ही हमें अपनी विरासत का बोध होगा। अपने नाम का अर्थ जानने की जिज्ञासा हर व्यक्ति में होने चाहिये। विश्व के किसी भी सुदूर कोने में निवास करने वाला प्रवासी भारतीय अपने नाम से ही तो अपने ‘मूल’ से अपने को जुड़ा अनुभव करता है । शिशु का जन्म वह समय है - जब व्यक्ति अपने मूल की ओर लौटता है । अपनी समृद्ध विरासत से व्यकि अपने बालक पर अपने दृढ मूल को ही अंतर्निवेश करता है । नामकरण में हम जिस भाषा के शब्दों को अपनाते है, उस भाषा के प्रति हमारा राष्ट्रीय लगाव होता है । भारतीयों के लिये संस्कृत भाषा सरकारी मान्यताओं और राजनैतिक प्रचारों के आधार पर नहीं अपितु अपने आभिजात गुणों के कारण भारत की स्वयं स्वीकृत, स्वयं प्रमाणित तथा स्वयं तथ्य के रूप में स्वीकृत भाषा है। भारत में संस्कृत का भौगोलिक विस्तार हुआ है अतः भारतीय विशेषकर हिन्दू नामकरणों में संस्कृत भाषा प्रधान रूप से रही है। संस्कृत भाषा ने उत्तर भारत और दक्षिण भारत की भाषाओं को एक सूत्र में जोड़ा है। संस्कृत का शब्द समूह तेलगू, कन्नड़ तथा मलयालम में तो आर्य परिवार की किसी भाषा से कम नहीं मिलता। तमिल में भी संस्कृत शब्द समूह मिलता है।

देवताओं के नाम सीधे संस्कृत भाषा से आये हुए हैं। देवताओं के नाम हमारे अपने नामकरण के लिये आधार रूप में हैं। इन नामों का प्रतिशत आज भी अन्य नामों की तुलना में अधिक मिलेगा। देवताओं के नाम हमारे अपने चिंतन का उत्कर्ष है, सांस्कृतिक गरिमा है, जीवन दर्शन है। और सबसे बड़ी बात इनमें भाषा का प्रतीकात्मक रूप सार्थक होकर ऐतिहासिक अर्थ के रूप में परिणत है। जिस नाम की जैसी मान्यता है, उसी के अनुसार उसका प्रतीकात्मक अर्थ कहा जाता है। इन नामों का भाषिक अर्थ भी होता है। इन नामों के पर्यायी रूपों की संख्या बढ़ती गई। पर्यायी नाम भी भाषा में सार्थक हो गए। विशेषणों के रूप में नामों का प्रचलन विशेष्य रूप में होता गया। आर्य परिवार से सम्बद्ध आधुनिक भाषाओं हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला, उड़िया, असमी, पंजाबी आदि में देवताओं के नाम सीधे संस्कृत से आए हैं। इन देवताओं के नामों के आधार पर ये भाषाएं पारिवारिक रूप से जुड़ी है।

इतिहास में व्यक्ति रूप में जिन नामों को पहले महत्व प्राप्त हुआ उनमें देवताओं के प्राकृतिक शक्तियों के जिन्हें देवता मान लिया गया और उन सब के नाम अधिक हैं जो भूलोक के साथ स्वर्ग के निवासी थे। देवताओं के नामों का इतिहास हमारा धार्मिक इतिहास है। देवताओं के नाम, उनके प्रतीकात्मक अर्थ तथा उनका विकास ध्यान में लेते हुए हमारे धार्मिक विकास की दिशा का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।

देवताओं के नामों की व्युत्पत्तियां मिलती हैं। उनके नामकरण से संबंधित कथानक और प्रसंग मिलते हैं। उन नामों का प्रतीकात्मक विवेचन मिलता है। इन सब नामों की संगति भाषा के साथ बैठाई गई है। देवताओं की स्तुति-स्तवन- स्त्रोत सबमें वस्तुतः नाम की महिमा होती है। देवता के नामों के विस्तार में याने पर्यायनामों में प्रतीकात्मक प्रवृत्तियाँ मिलती है। इन प्रवृत्तियों के कारण ही ये नाम हमारे सांस्कृतिक जीवन के अंग हो गए हैं। इन नामों में हमारे जीवन मूल्य हैं और इनके बल पर हम जीवन की गम्भीर व्याख्या कर सकते हैं।

देवताओं के नाम मनुष्यों को देने से मनुष्य ठीक-ठीक देवता नहीं हो गए। पर उनके मन में एक भोला विश्वास बैठ गया कि बालक को पुकारने के बहाने वे अनायास सहज ही देवताओं को पुकार लेंगे। हमारे देवी देवताओं के सहस्त्र-सहस्त्र पर्यायी नामों से जो इष्ट नाम जंचा रख लिया अपनी संतान का नाम। पुराण कथा है दुष्ट पापी अजामिल ने मरणासन्न स्थिति में कातर स्वर में अपने बेटे को पुकारा- नारायण, अरे नारायण । भगवान नारायण ‘विष्णु’ के पार्षद विमान लेकर उपस्थित हो गए। नाम की महिमा से दुष्ट पापी अजामिल विमान में बैठ गया सीधे बैकुण्ठधाम।

‘अपतु अजामिल गजु गनिकाउ भये मुक्त हरि नाम प्रभाउ’

देवताओं के नाम, उनकी पत्नी के नाम के आगे पति, नाथ, ईश, कान्त स्वामी आदि संलग्न करके भी बनाए गये, जैसे रमापति, रमानाथ, रमेश, रमाकान्त, राधास्वामी । देव पति और देवी पत्नी के नामों को जोड़ कर समाहार द्वन्द्व समास बनाए गए - उमाशंकर, सीताराम, लक्ष्मीनारायण, जैसे सामासिक पद पुत्रों के नामकरण में प्रचलित हो गए । दो देवताओं के नामों को जोड़ कर भी द्वन्द्व समास बनाए गए जैसे शिवराम, हरिहर, रामनारायण, शिवनारायण । पुत्र का जन्म माता-पिता के लिये आनंदकारी होता है। माता के नाम के आगे नन्दन जोड़ कर देवताओं के नाम बनाए गये - देवकीनन्दन, गिरिजानन्दन, सुमित्रानन्दन । पिता के नाम के आगे नन्दन जोड़ नाम बने रघुनन्दन, दशरथनन्दन, शिवनन्दन आदि।

रामायण, महाभारत, पुराण, जातककथाएँ, इतिहास, हिन्दु नामों के लिये आकर ग्रंथ रहे हैं। पौराणिक नामों में इतिहास और भूगोल दोनों एक हो गए हैं। इतिहास पहले या भूगोल पहले कहना कठिन है। नामों में भारतीय संस्कृति, इतिहास, भूगोल प्रतिबिम्बित है। नामों ने देश और काल की लम्बी यात्रा की है। भारत के तीर्थ स्थलों के नामों के मूल में भौगोलिक विस्तार के साथ-साथ भाषा का विस्तार और उन सबको भौगोलिक चेतना के माध्यम से मातृभूमि के प्रेम में परिणित किया है।

अयोध्या, काशी, द्वारका, मधुरा अवन्ती आदि पुण्य नगरियों ने अनेक बालिकाओं का नामकरण किया है और आज भी कर रही है। इसी तरह जगन्नाथ वृंदावन, प्रयाग बद्रीनाथ ओकारेश्वर रामेश्वर जैसे तीर्थक्षेत्र बालकों के नामकरण के आधार रहे हैं । भारतीय संस्कृति में प्रत्येक नदी को पूज्य माना गया है- नदियों के नाम पर बालिकाओं का नामकरण होता आया है-- गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, सिन्धु आदि नदियों ने अनगिनत बालिकाओं को नाम दिया है।

पर्वत और नदियों के नाम ठीक-ठीक भौगोलिक नहीं है। ये सब नाम नामकरण के पूर्व व्यक्तिनाम रहे होंगे । पार्वती पिता पर्वतराज, पत्थर का पहाड़ नहीं, दक्ष प्रजापति का वंशज हिमाचल प्रदेश का राजा था । गंगा राजा शांतनु की पत्नी और भीष्म की माता थी । महाभारत में ऐसा चित्रण किया गया जैसे पानी से भरी नदी वास्तव में कोई गंगा नाम की राजकन्य थी । पर्वतों और नदियों के नामों पर व्यक्तिनामों का प्रभाव है । क्या वास्तव में व्यक्ति पहले रहे और बाद में नदियों और पर्वतों का नामकरण हुआ।

बंगाल की मेघना नदी इन्दौर में एक लड़की का नाम बनती है। लड़की की मां नहीं जानती ‘मेघना’ किस चिड़िया का नाम है। कहती है चाचा ने यह नाम रखा है। और चाचा ने भी यह नाम उठाया है सिने संसार के चमकते आकाश से - राखी गुलजार की पुत्री मेघना के नाम पर । नाम के संदर्भ में नए-नए सन्दर्भ जुड़ने लगते हैं। नए जुड़ने वाले संदर्भ नामकरण के संदर्भ से भिन्न होते हैं।

माता-पिता दोनों के नामों से एक-एक पद लेकर नया नाम रच लेते हैं। देवेन्द्र और चन्द्रप्रभा के नामों से क्रमशः प्रथम पद देव और दूसरे नाम से उत्तर पद प्रभा लेकर नाम निर्मित कर लिया पुत्री का देवप्रभा। इसी तरह वरूण और सुधा की पुत्री का नाम वसुधा बन सकता है। आनन्दीलाल शर्मा और कान्ता शर्मा के पुत्र का नाम हो गया आकाश। हमने अपने पौत्र को पुकारू नाम दिया नीपू पुत्र वधू नीरजा से नी और पुत्र अपूर्व से पू लेकर नीपू लाड़ला नाम दिया जो पुकारने में निप्पू हो गया तो नामकरण में वह निपुण लिखा गया। उसी तरह पौत्री को पुकारू नाम को बनाया अपूर्व से 'अ' और नीरजा के नी' को लेकर अनी' । नामकरण में वह अन्विता हो गई।

नामकरण में हम अपनी भाषाओं का ही नहीं अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दों का भी चयन कर लेते हैं। कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन काल से लेकर बहादुर शाह जफर के शासन काल तक - लगभग सात शताब्दियों के काल में तुर्की, अरबी, फारसी के शब्द भारतीय नामों में उतर गए और वे आज भी प्रचलित हैं। चिराग, रोशन, रौशनी, रौनक हैं तो गुलाब, महक, खुशबू, खुशी मीना भी हैं। भारतीय जन “वसुधैव कुटुम्बकम की भावना रखते हैं। "अयं निजः परोवा" की ओछी भावना, मेरे तेरे का विचार हमारे उदारचरित चित्त में व्याप्त नहीं होता है। फारस और अरब में हमारी लक्ष्मी देवी घुस नहीं सकती पर वहां की दौलत को हमने अपनी बहू बेटी बना लिया-दौलत बाई बन वह भारत में सुख से रह रही है। राम भी दौलत से जुड़ कर दौलतराम बन जाते हैं।

नारायण ‘इकबाल’ को कबूल कर इकबाल नारायण बन जाते हैं। चंद लोग फकीर से मिलकर फकीरचंद भी हो गए। अरबी फारसी तत्सम तद्भव रूपों का मिलाप करके रामबक्श, प्रेमअदीब, सतीशबहादुर, मुमताजशांति जैसे नाम बनाना हिन्दुओं की एक विशेषता रही है। ऐसे नामों से सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक पक्ष का परीक्षण होता है।

आज अंग्रेजी शब्दों की पहुंच भारत के गांव गांव में हो गई है। इसलिये नामकरण में अंग्रेजी शब्दों का झुण्ड भी प्रविष्ट हो गया है। डाली, डोरा, रोजा, पिंकी, डिम्पल, सिंपल, बेवी, बाबी, नताशा, सोनिया, हमारी लड़कियों के तथा राकी, हनी, सनी, हैप्पी, लकी, हिन्दू लड़कों के नाम होने लगे हैं। हमारे उदार चरित को दर्शाते नाम हिन्दू समाज की प्रकृति की पहचान है।

अपनी रूचि, संस्कृति, परिवेश, शिक्षा स्तर के अनुसार माता-पिता या परिजन मूर्त पार्थिव जगत् से या अमूर्त आध्यात्मिक जगत से अपने बालकों के नाम चुन लेते है। जातिवाचक संज्ञा बालक का नाम बन व्यक्तिवाचक बन जाती है। ‘सागर’ बालक बन जाता है 'सरिता' बालिका बन जाती है। निराकार भाववाचक शब्द ‘धीरज’ और प्रताप बालक के अभिधान बन साकार हो व्यक्तिवाचक बन जाते हैं। उसी तरह निराकार भाववाचक संज्ञाएँ मुक्ति, शांति, महिमा, अणिमा, गरिमा, ईशिता, सिद्धि बालिकाओं के नाम बन व्यक्तिवाचक होकर ठुमकने लगती हैं।

जल, थल, नभ के विशाल साम्राज्य से प्रकृति बड़ी उदारता से बालक बालिकाओं के नाम चयन के आधार प्रदान करती है। जन्म दिन के आधार पर कुछ पालक अपने शिशु के नाम रख लेते हैं- रविकुमार, सोमनाथ, मंगलसिंह, मंगला, बुधीराम् गुरुप्रसाद। ऋतु के आधार पर नाम हो जाते हैं - वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर, हेमन्त। जन्म स्थान के नाम पर- इन्दौरीलाल, मथुरालाल बनारसीदास। हिन्दू पंचांग की तिथियों के अनुसार नाम मिलते हैं- तीजनबाई, पूनम, पूर्णिमा एकादशी के नाम - ग्यारसीबाई, पवित्रा, पदमा, इंदिरा, मोहिनी मोक्षदा, कामदा, रमा, प्रबोधनी, सफला, अचला, अपरा, जया, विजया। महीनों के नाम भी व्यक्तिनाम बन जाते हैं कार्तिक, आश्विन, श्रवण, श्रावणी, सावन कुमार, फाल्गुनी। समय के अनुसार भी रख लिये जाते हैं- उषा, प्रभात, प्रभा, संध्या, निशा, रजनी । मानव ने शिशु के नाम देने के लिये वनस्पति जगत और प्राणिजगत के विशाल, विस्तृत अनन्त सुन्दर संसार से अनन्त सुन्दर, सुन्दर सार्थक उपमान चुन लिए।

कोमलता का उपमान शिरीष पुष्प, शांति का प्रतीक चिन्ह, कमल पुष्प, पंक में उत्पन्न होने वाला परम पवित्र पंकज सभी व्यक्तिनाम बन जाते हैं। एक साथ कोमलता, सुगंध, रंग और प्रफुल्लता की अनुभूति देते जाई. जूही, चंपा, चमेली रजनीगंधा, माधवी, मधुमालती, आदि के लता गुल्म के नाम पर बालिकाओं को पुकारा जाता है। आंगन में तुलसी चौरे की परिक्रमा करती, सांझ को दीपक धरती, कई नारियों ने स्वयं पवित्र तुलसी का नाम धारण किया।

कवियों ने नारी सौंदर्य के वर्णन के लिये प्राणियों की सुसंगत विशेषताऐं ली। स्त्री जिसकी आंखें मृग की आंखों की तरह भोलापन लिए सुन्दर हो उसे कहा गया मृगनयनी। युवक जिसके नयन कमल की पंखड़ी जैसे हों उसको कहा- कमलनयन, राजीवलोचन। मछली के आकार व चंचल चितवन वाली स्त्री को कहा- मीनाक्षी, मधुर आवाज वाली को कहा कोकिला। इसी तरह पशु-पक्षियों के सुन्दर विशाल अनन्त साम्राज्य से उपमान निकल कर व्यक्तिवाचक अभिधान बन जाए। बालक बालिकाओं की पहचान बन गए।

कुछ माता-पिता अपने बच्चों के नामों में अन्त्यनुप्रास सजाते हैं। लाल प्रसाद, शंकर, दत्त, आदि उत्तरपद लगाकर नाम निर्माण करते हैं। रामलाल, श्यामलाल, गोपीलाल, शिवप्रसाद, गुरुप्रसाद, रामप्रसाद, रमाशंकर, जयशंकर, मणिशंकर, ओमदत्त, देवदत्त, यज्ञदत्त इसी तरह बालिकाओं के नाम में भी लय मिलाते हैं- कीर्तिलता, तरूलता, प्रेमलता कमला, विमला, अमला। मानव जीवन के भिन्न भिन्न पहलुओं से नाम एक वर्ग या विषय के हो सकते हैं जैसे पूजा अर्चना, आराधना, आरती, भाई अक्षत है तो बहिन कुमकुम या रोली हो सकती है। उसी तरह यदि भाई का नाम दीपक है तो बहन का नाम वर्तिका या ज्योति।

प्रज्ञा, सुमेधा, महावीर, सत्यकाम जैसे नामों से प्रशंसनीय गुण और भावों की अनुभूति होती है। राजस, सात्विक, गंभीर, आमोदिनी, उज्जवला, हर्षिता, मनोहर, जैसे नामों से व्यक्तिगत विशेषता, रूप या स्वभाव की प्रतीति होती है। शिशु के बिना घर की शोभा नही - शिशु अलंकार होते हैं - नाम होते हैं उनके - भूषण, नूपुर, कंगना, कंकणा, कुण्डल, माला, चंद्रहार, पायल, कर्णिका, बिंदिया, गजरा, माला । शिशु मूल्यवान धातु की तरह है और अनमोल रतन होते हैं। बड़े चाव से उन्हें पुकारा जाता है- सोना, रूपा, रजत, कंचन, हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, नीलम, लाल, जवाहर, मणि। संगीतकार, गायक वादक अपनी संतान के नाम, कल्याण, आसावरी, पूर्वी, तराना, मल्हार, वीणा, बासुरी, बंशी, संगीता जैसे शब्दों पर रख अपने संगीत प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं।

साहित्यकार या साहित्य प्रेमी माता पिता की पसन्द होते हैं- प्रसिद्ध साहित्यकारों के नाम जैसे प्रेमचंद, रवीन्द्र, प्रसिद्ध साहित्य कृतियों के नाम जैसे गीतांजली कामायनी, दिव्या, चित्रलेखा या उन कृतियों के पात्रों के नाम चित्रलेखा, कादम्बरी, महाश्वेता, शकुन्तला।

सिनेमा के प्रभाव में लोकप्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियों के नाम घर-घर में पहुंच गये। सगी बहनों को नूतन तनुजा के नाम दे दिये। मधुबाला, मीनाकुमारी, शर्मिला, माधुरी, डिम्पल, ऐश्वर्या, मल्लिका का अर्थ होता है- गंदी बस्ती में रहने वाले माता पिता के लिये केवल एक सिनेतारिका-स्टार। उन्हीं बस्तियों में अशोक कुमार, राजेश, दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, जितेन्द्र, अमिताभ, अभिषेक के नाम भी पुकारे जाते हैं।

मिठाईयों के नाम शिशु के नाम बन जाते हैं- मिष्टी, फेनी, इमरती, राबड़ी, चंद्रकला, मिठाईयों के नाम हैं। लड़कियों के भी नाम है। घेवरमल, बर्फीलाल, लाडूराम, मेवालाल आदि लड़कों के नाम।

शिक्षित पालक संज्ञा और विशेषण और धातु के पूर्व उपसर्ग तथा बाद में प्रत्यय जोड़ शब्द नाम शब्द को अधिक चमकाने वाला व्याकरण सम्मत शब्द गठन कर लेते है। उपसर्ग प्र से जुड़कर दीप और शांत प्रदीप और प्रशान्त बन गए। उपसर्ग सु से जुड़कर शीला सुशीला कन्या सुकन्या और मति सुमति हो जाती है।

कृत प्रत्ययों और तद्धित प्रत्ययों के योग से भी अनेक सुन्दर सुलभ नाम प्रचलन में आये है। विद धातु में ‘कुश्च’ प्रत्यय जुड़ने से विदुर जैसा ज्ञानी जन्म लेता है। नी धातु और कृ धातु में ‘ति’ प्रत्यय जुड़ने पर हमें नीति और कृति मिलती है। ‘यशस’ शब्द में विनि तद्धित प्रत्यय जुड़ कर 'यशस्वी' बन जाता है सुन्दर ‘य’ तद्वित के योग से सौंदर्य हो जाता है। मम से ता मिल कर ममता खड़ी हो जाती है। पुल्लिंग विशेषण शब्द अमल, विमल, सरल, अभय टाप (आ) तद्वित स्त्री प्रत्यय के जुड़ते ही अमला, विमला, सरला अभया, बन बालिकाओं के नाम बन जाते है।

अनेकता में एकता लिये भारतीय जीवन शैली जो सुदूर अतीत से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती आई है- आध्यात्मिक धार्मिक, परम्पराओं और दार्शनिक विचार धाराओं का योगफल है। हजारों वर्षों की सामासिक संस्कृति ने उसका पोषण किया है। हमारी विरासत सम्पन्न और प्राचीन है। किसी भी सम्प्रदाय और विचार धारा के लोग दूसरे सम्प्रदाय व धर्म के ऐतिहासिक व मिथकीय देव देवताओं और महापुरूषों के नाम अपने शिशुओं को देते आये हैं। जैन मतावलम्बियों के लिये आदरास्पद नाम सिद्धार्थ, वर्धमान महावीर, यशोदा, त्रिशला, प्रियकारिणी ऋषभ, अजित, पारस, वैशाली आदि सनातन हिन्दुओं के लिये भी सामान्य रूप में नामकरण में प्रचलित है। उसी तरह बौद्ध जातक कथाओं से भी हिन्दू बालकों के नाम उद्धृत होते है- जैसे महामाया, मायादेवी, गौतमी, शुद्धोधन, सिद्धार्थ, गौतम, आनंद, राहुल यशोधरा, सुन्दरी, नंदकुमार, सत्य और अहिंसा केवल जैन और बौद्ध के लिये नहीं हिन्दुओं में भी उतने ही ग्राह्य नाम है।

हिन्दुओं में प्रचलित नाम थोड़े से उच्चारण परिवर्तन के साथ सिख नाम हो जाते है। चन्द्र चन्दर हो जाता है चन्दरसिंह होकर बालक और चन्दरकौर बनकर बालिका का नामकरण करता है। योगेंद्र, जोगिंदर बन जाता है। मुल्कराज, मेहर, मन्नत बलबीर जैसे नाम मुख्य धारा के सामान्य नामों में प्रचलित रहे हैं। हिन्दू नामों का सांस्कृतिक संकरण सतत् प्रवाहमान है।

धर्मांतरण के बाद नाम परिवर्तन कर दिया जाता है, लाजवन्ती लाजो या पूरो के एक हाथ पर हमीदा गुदवा दिया जाता है। अनुराधा फिजा हो जाती है। शर्मिला इस्लामी नाम आयशा लेकर ही निकाह कबूल करती है या श्री शरद जोशी के साथ इरफाना, इरफाना ही बनी रहती है।

धर्मांतरण के बाद ईसाई लोग भी ईसाई नाम और उपनाम रखते हैं। कुछ भारतीय ईसाईयों में यह प्रवृत्ति पनप रही है कि वे अपने जड़मूल से भी जुड़े रहना चाहते हैं। वे प्रथम नाम तो परम्परागत नामों से चयन करते हैं और उपनाम ईसाईमत को व्यक्त करता हुआ धारण करते हैं। मुझे याद है अपनी सहकर्मी शिक्षिकायें उषा विलियम, नलिनी जेम्स, हेम नलिनी बाल्टर्स और शिक्षक शांतिलाल सालोमन, लीलाधर फ्रांसिस भी। सुनीता विलियम नाम अंतरिक्ष में पहुंच गया। कुछ ऐसे ईसाईजन भी दृष्टान्त रूप में सम्पर्क में आये जिन्होंने अपने प्रथम नाम और अंतिम नाम सरनेम अपनी भारतीय परम्परा से ही ग्रहण किये हैं। कांग्रेस के मुखर नेता अजीत जोगी से तो आप भली भाति परिचित हैं। हमारा ड्रायवर ईसाई था नाम उसका था रामनारायण सोलंकी। हमारी परिचित शिक्षिका थी सरला राय, भौतिक शास्त्र की व्याख्याता कोकिला पाल. लेखिका उषा कोल्हटकर ने ईसाईमत ग्रहण करने के बाद भी अपने भारतीय मूल से अपने को दृढता से जोड़े रखा अपने नाम और उपनाम से । विवाह के बाद वधू का नाम बदलने की रस्म होती है। मनु या छबीली को लक्ष्मीबाई नाम दिया यह इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण है। सन्यास ग्रहण करने पर मूलशंकर दयानंद हो जाते हैं और नरेन्द्र विवेकानंद ।

भारत में जन्म के साथ ही शिशु को नाम नहीं मिलता है। कानूनन यह अनिवार्य भी नहीं है। सुविधानुसार नाम चयन करते रहते हैं। इस बीच शिशु को दुलारे/ प्यारे ‘निकनेम / पेट नेम’ से पुकारते हैं पुचकारते रहते है- पप्पू, बनू, मुनिया, गुड़िया, भूरिया, कालिया, छोटू, मोटू, गोलू, बबलू, चिंटू मिंटू, झबली बबली, आदि। कुछ विशेष प्रकरण में निकनेम चालू रह कर विकल्प नाम बन जाते हैं। कैलाश कुण्डल, पप्पू कुण्डल से ही पहचाना जाता है उम्र के सातवें दशक में भी। बचपन के पुकारू नाम परिवार के उपनाम की तरह संस्थापित हो जाते हैं जैसे-’बच्चन’।

कई बार तो मध्य नाम (सरनेम) उपनाम बन जाते हैं किशोर कुमार दास, राय लाल, प्रसाद।

माता-पिता चाहते हैं कि उनका शिशु वह जीवन जिये जो उनके जीवन से बेहतर हो। शिशु के लिये माता-पिता की महत्वकांक्षा नाम के माध्यम से प्रकट होती है। वे अपने बालकों के नाम रखते हैं राजेन्द्र, वैभव, श्रीपति, लक्ष्मीपति, तहसीलदार, सूबेदार, राजकुमार, रानी, राजकुमारी, राजेश्वरी, राजरानी।

यथा नाम तथा गुण या रूप वाले व्यक्ति बहुत कम मिलते हैं। ‘नाम बड़े दर्शन खोटे' मुहावरे को सार्थक करते नामधारी अनेक होते हैं। बेहत बदसूरत को नाम दिया रूपचंद, रूपराम, रूपकुंवर, रूपमती क्योंकि अपना बच्चा ही तो सबसे खूबसूरत लगता है माता पिता को। कोयले जैसी काली कन्या को नाम - उज्जवला, शुभ्रा, श्वेता। आंख से अंधा नाम नयनसुख। निरक्षर भट्टाचार्य नाम विद्याधर, नहाना न धोना नाम गंगाधर, नाम शांता है जो हमेशा मचाती रहती है दंगा। नाम मफतलाल है उसके नाम के शेअर बिकते हैं। श्रीनिवास फुटपाथ पर सोता है। नाम है प्रशान्त - क्रोध करने में दुर्वासा। बेहतर डरपोक है पर नाम रखा है निर्भय, अभय, अमया। अत्यधिक उद्दण्ड है नाम है विनीत, विनम्र, विनीता, सुभाष के मुंह से हमेशा कटुवधन झरते रहते हैं ।

मनुष्य को समाज में अनेक व्यक्तियों से सम्पर्क करना है, व्यवहार करना है, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी है। इन सब कार्यों व व्यवहारों के लिये नाम की आवश्यकता है क्योंकि रूप तो केवल व्यक्ति सत्य होता है किन्तु नाम व्यवहार सत्य होता है। बिना नाम के समाज में व्यवहार कैसे हो सकता है? इसे समाज ने स्वीकारा अनुभव किया। व्यवहार के लिये शिशु को एक नाम देने की आवश्यकता होती है। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिये नामकरण सम्पन्न किया जाता है। हमारे प्राचीन ऋषियों मनीषियों ने इसे सोलह संस्कारों में सम्मिलित किया था। यह भारत देश का दुर्भाग्य है कि वर्तमान में हम केवल परम्परा के निर्वाह मात्र विवाह और अन्त्येष्टि संस्कार अनिवार्य रूप से कर लेते हैं। उसमें भी केवल बाह्य प्रदर्शन आडम्बर की ओर अधिक ध्यान रहता है। संस्कारों के महत्व को जानने की, समझने की, लालसा, जिज्ञासा बिल्कुल नहीं होती।

नामकरण संस्कार द्वारा शिशु को उसका नाम दिया जाता है। पंडित या कुलगुरु नाम का पहिला अक्षर जन्मपत्री के आधार पर सुझाते हैं। प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक ज्योतिष शास्त्र द्वारा निर्धारित अट्ठाईस नक्षत्र और बारह राशियां ही नामकरण के मूल है। प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं और नक्षत्र के अनुसार निर्धारित वर्ण ही नाम का पहिला अक्षर होता है। नक्षत्र के आधार पर नामकरण करने पर अनेक हास्यास्पद निरर्थक और भोंडे नाम अस्तित्व में आ जाते हैं। ढालुराम, कालूराम, डालूराम, लादूराम, ढेलाचंद जैसे पता नहीं किसने राशि अक्षर पर नाम रखने की व्यर्थ की परम्परा रखी। मेरे पुत्र का जन्म अश्लेषा नक्षत्र के तीसरे चरण में हुआ। ज्योतिषाचार्य शास्त्री पंडित ने जन्म पत्रिका में उसका नाम लिखा है - ‘'डेमलाल’ । अटपटा निरर्थक हास्यास्पद नाम। विवाह के लिये, शुभकार्यों के लिये जन्म राशि के नाम को प्रधानता दी जाती है और व्यवहार के लिये पुकारते नाम को प्रधानता दी जाती है। यह विधान भी राशिचक में फंसे लोगों के समाधान के लिये ज्योतिषियों कर रखा है।

हमने अपने पुत्र के जन्मराशि नाम 'डेमलाल' को न कभी उच्चारा न इस राशि नाम को उसके विवाह में गुण मिलान के लिये उपयोग में लिया जबकि तथाकथित ज्योतिषियों ने लोगों के दिमाग में ठूस दिया है कि जन्म समय के नक्षत्र चरण के अनुसार नामकरण किये गए नाम से ही गुण मिलान करना चाहिये।

आजकल ज्योतिषियों ने अंक ज्योतिष के नाम पर एक नया ढर्रा चला दिया है कि कुंडली उपलब्ध न होने पर अंक शास्त्र की मदद से वर-वधू दोनों के नामांक ज्ञात कर गुण मिलान का परिणाम बताया जा सकता है। नामांक निकालने के लिये हिन्दी नाम को देवनागरी में न लिखकर उसका रोमन लिपि में ट्रांसलिटरेशन/लिप्यन्तरण करा जाता है। रोमन लिपि में प्रत्येक वर्ण का एक निश्चित मूल्य या अंक होता है। मेरी जानकारी में देवनागरी वर्णमाला में वर्णों का कोई अंक निर्धारित नहीं किया गया है। अंग्रेजी में लिखे नाम के वर्णों के अंकों के योगफल को नामांक कहते हैं। नामांक की एक निश्चित संख्यात्मक मूल्य / न्यूमरीकल वेल्यू होती है जिसका एक निश्चित अर्थ होता है। मतलब कि नाम शुभ है या अशुभ भविष्य कैसा रहेगा? वर-वधू के नामांक निकालकर गुण मिलान का परिणाम बताया जाता है कि विवाह सफल होगा या नहीं।

अंग्रेजी पढे लिखे शिक्षित लोगों का यह अंधविश्वास है कि नाम व्यक्ति के भाग्य को बदल सकता है। लोग शिशु का नाम पसन्द कर लेते हैं। फिर नाम की 'व्हेल्यू' निकालते हैं यदि वह भाग्यशाली या शुभ हो तो वह नाम रख लेते हैं नहीं तो दूसरी 'लकी’ संख्या वाला नाम दूंढते हैं।

कुछ पालक ऐसे भी होते हैं जो अपने बालक का नाम निश्चित कर रख लेते हैं। कुछ समय बाद वे उसका नामांक ज्ञात करते हैं। पाते हैं कि नामांक पर्याप्त शुभ नहीं है। किन्हीं अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण वे बालक का नाम परिवर्तन नहीं कर सकते । तब वे उसी नाम के अंग्रेजी लिप्यान्तरण में एक या दो अक्षरों का परिवर्तन कर उस नाम को 'लकी' बना लेते हैं। हिन्दी नाम का सही उच्चारण और अर्थ ऐसे अंग्रेजी पसन्द लोगों के लिये व्यर्थ होता है।

नाम की वर्तनी (स्पेलिंग) के साथ छेड़छाड़ कर नाम को शुभ नामांक में बदलने से क्या सचमुच में जीवन शुभ हो जाता है? यदि ऐसा होता तो संसार में कहीं भी कभी भी किसी के साथ अशुभ नहीं होता। नाम की वर्तनी बदलने से नहीं, बालक के साथ नामानुसार व्यवहार करके नाम को सार्थक किया जाना चाहिये, जीवन उच्च बनाने की प्रेरणा देनी चाहिये। उत्तम कर्म ही नाम को यशस्वी और शुभ बनाते है।

नारद ऋषि ने बताया है 'नाम पूर्व प्रशस्तं स्यान्मंगले शुभमीक्षता' अच्छे मांगलिक अक्षरों से नाम शुभ होता है। प्रशस्तं खलु नाम कर्म - नामकरण प्रशस्त प्रशंसनीय कार्य है। हमारे स्मृति ग्रंथों और गृहय सूत्रों में बालक तथा बालिकाओं के नामकरण के नियम निर्देशित किये गये हैं। वर्तमान में इन नियमों का पालन सुविध और इच्छा के अनुसार कुछ अंशों में ही किया जा रहा है। महर्षि दयानंद द्वारा निर्दिष्ट संस्कार विधि के अनुसार नामकरण संस्कार बालक उत्पन्न होने के बाद सुविधानुसार 11 वें, 101 वें या बालक के जन्मदिन पर एक वर्ष पश्चात करना चाहिये। वैसे संस्कार विधि' मनुस्मृति से अनुप्राणित है।

आश्वालयन और पारस्कर गृह्य सूत्रों में समानता है - दशवें दिन पिता नामकरण संस्कार कराता है। बालक का नाम दो अक्षर का या चार अक्षर का हो और वह घोष संज्ञक अर्थात् पांचों वर्गों के दो दो अक्षर छोड़ कर तीसरे चौथे, पांचवे अक्षर - ग, घ, ड, ज, झ, ड ,ढ,ण, द, ध, न, ब, भ, म. ये स्पर्श और अन्तस्थ अर्थात् य, र, ल व, से युक्त दीर्घ स्वरान्त नाम रखें। और नाम कृदन्त रखे तद्धितान्त नहीं । विषमाक्षर और आकारान्त नाम स्त्रियों के होने चाहिये।

मनुस्मृति में दूसरे अध्याय के छठे और सातवे श्लोक में वर्णानुसार नामकरण अर्थात् वर्ण सापेक्ष गुणों और वर्णगत कार्यों के आधार पर बालकों के नामकरण करने का विधान है।

ब्राह्मण के नाम शिवकुमार, धर्मदत्त, क्षत्रिय के नाम महीपाल, नरेश, वैश्य के नाम धनेश, धनपाल, लक्ष्मीधर और शूद्र के नाम चरणदास, रामसेवक, जैसे शब्दों में रखना चाहिये।

मनुस्मृति में स्त्रियों के नामकरण की विधि उसी अध्याय के आठवें श्लोक में बताई है।

स्त्रीणाम् सुखोद्यमकूर, विस्पष्टार्थ मनोहरम् ।
मंगल्यं दीर्घ वर्णान्तमाशीर्वादामिधानवत् ।।

स्त्रियों का नाम उच्चारण किया जा सकने वाला, कोमल वर्णों वाला स्पष्ट अर्थ वाला, मन को आकर्षक लगने वाला, शुभ भाव युक्त, अन्त में दीर्घ अक्षर वाला तथा आशीर्वाद का वाचक होना चाहिये। ‘संस्कार विधि’ में दयानंद सरस्वती ने लिखा है- जो स्त्री हो तो एक तीन या पांच अक्षर का नाम रखे - श्री. यशोदा, सुखदा, सौभाग्यप्रदा इत्यादि।

आश्वालायन गृह्य सूत्र कहता है- अयुजानि स्त्रीणाम, पारस्कर गृह्य सूत्र भी कहता है- अयुजाक्षरम् आकारान्तं स्त्रियै।

मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में नवें श्लोक में विवाह प्रकरण में त्याज्य कन्याओं के नामों के बारे में बताया गया है।

नर्क्ष वृक्ष नदी नाम्नी नांत्यपर्वत नामिकाम् ।
न पश्यहि प्रेष्य नाम्नी न च भीषण नामिकाम्।।

नक्षत्र, वृक्ष, नदी के नाम वाली पर्वत के नाम वाली, पक्षी सर्प और प्रेष्य नाम वाली, तथा भीषण नाम वाली कन्यायें विवाह के लिये त्याज्य है इनके साथ विवाह न करें। महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘सत्यार्थ प्रकाश’ और ‘संस्कार विधि’ में मनु के इस विधान का ही समर्थन करते हैं। सत्यार्थ प्रकाश में वे लिखते हैं- न ऋक्ष अर्थात् अश्विनी, भरणी, रोहिणी, रेवती, चित्तारि आदि नक्षत्र नाम वाली, तुलसी, गेंदा, गुलाबा, चंपा चमेली आदि वृक्ष नाम वाली, गंगा जमुना, आदि नदी नाम वाली चांडाली आदि अन्तय नाम वाली विध्या, हिमालया पार्वती, आदि पर्वत नाम वाली माधोदासी, मीरादासी, आदि प्रेष्य नाम वाली कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये क्योंकि ये नाम कुत्सित तथा अन्य पदार्थों के भी हैं। आश्चर्य होता है, समझ से परे है कि दयानंद सरस्वती जैसे तर्क निष्ठ व्यक्ति ने ऐसे नामों को कुत्सित नाम क्योंकर माना ? विवाह में वर वधू के नामों का महत्व होता है मनु ने विवाह के लिये त्याज्य पुरुष नामों का कोई विधान क्यों नहीं रचा ?

आगे मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 10वें श्लोक में विवाह योग्य कन्या के बारे में लिखा है
अय्यंगी सौम्यनाम्नी हंसवारणगामिनी।
तनुलोमकेशदशनां मृद्धडगीमुद्र हेत्स्त्रियम् ।।

इसी श्लोक को सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में उद्धृत करते हुए ऋषि दयानंद लिखते हैं - जिसके अंग सरल सूधे हो, विरूद्ध न हो, जिसका नाम सुन्दर, अर्थात् यशोदा, सुखदा, आदि हो हंस और हथनी के तुल्य जिसकी चाल हो, सूक्ष्म लोम्, केश और दांत युक्त और जिसके सब अंग कोमल हों, वैसी कन्या के साथ विवाह करना चाहिये।

मनुस्मृति की सौम्य नाम्नी कन्यायें ऋषि दयानंद की यशोदा सुखदा आदि नाम वाली कन्यायें ही हो सकती हैं। रोहिणी, गंगा, पार्वती, चम्पा, चमेली जैसे कुत्सित नाम वाली कन्यायें विवाह के लिये त्याज्य हैं।

लोगों ने न तो मनु को माना न दयानंद सरस्वती को वे जल थल नभ याने प्रकृति के भण्डार से चुन चुन कर अपनी बालिकाओं का नामकरण करते रहे हैं, विवाह करके ससुराल के लिये विदा करते रहे हैं।

आज किसी स्मृति या गृहय सूत्र के विधान को पालन करने की अनिवार्यता नहीं है। बस अपनी रूचि और विवेक के अनुसार अपने बालक का सार्थक, सुगम, सुबोध,, श्रुति मधुर नाम चयन करना है ।

ऐसे नाम नहीं चाहिये कि बड़े होने पर व्यक्ति अपना पूरा नाम लिखने या बताने में संकोच करे। छेदीलाल को अपने को सी.लाल लिखते, चौधरीराम आहूजा अपने हस्ताक्षर सी आर आहूजा लिखते और नाम में भी सी.आर. आहूजा। लोग भी उन्हें सी आर कह कर बोलते।

घसीटाराम, छितरमल, कनछेदी, तिनकौड़ी आदि नाम टोटके के अनुसार रखे जाते थे। एक खास तबके में शैतानमल नाम बहुत पाया जाता है - न जाने क्यों ?

बालिका के लिये ‘सुलभा’ नाम सुन्दर सार्थक सौम्य नाम है पर बालक के लिये ‘सुलभ’ नाम सुन्दर, सार्थक, सौम्य होते हुए भी उपयुक्त नहीं है। बालक को उसके साथी सुलभ शौचालय कहकर चिढ़ा सकते हैं। रक्षित' नाम बालक को दिया जा सकता है लेकिन बालिका को रक्षिता नाम नहीं क्योंकि रक्षिता' का रूढ़ अर्थ ‘रखैल’ हो गया है।

बालिका का नाम ‘किन्नरी’ हो सकता है पर बालक को ‘किन्नर’ नाम देना ठीक नहीं। ‘किन्नर’ शब्द हिजड़े व्यक्ति के लिये रूढ हो गया है।

बालक के जन्म समय की दुर्घटना के आधार पर नामकरण करना उचित नहीं एक नेताजी जब मीसा में जेल में बन्द थे उनके यहां कन्या ने जन्म दिया। उन्होंने उस कन्या का नाम रखा ‘मीसा’। इसी तरह पिता जेल में बंद है तो लड़का होने पर उसको नाम दे दो जेलसिंह, जेलकुमार।

बालिका के नाम बब्बी, चुम्मा, पप्पी नहीं रखना चाहिये। युवती होने पर लड़के इन नामों का साथ ले उसे छेड़ सकते हैं जैसे चुम्मा चुम्मा दे दे।

निरर्थक नाम नहीं रखना चाहिये, बदनाम नाम नहीं रखना चाहिये। वर्तमान में लड़के लड़कियों के नाम के लिये वर्ण संख्या की कोई सख्ती नहीं है। फिर भी उचित होगा कि नाम सादा, सरल और छोटा हो। नाम में ऐसे वर्ण आयें जिनका उच्चारण सरल हो। वार्त्रघ्न, (अर्जुन का नाम) शुश्रूषक (सेवक) जैसे संयुक्त वर्ण वाले क्लिष्ट नामों का उच्चारण भ्रष्ट होकर हास्यास्पद हो सकता है। सामान्य रूप से माता पिता चाहते हैं कि उनके शिशु का नाम बहुतायत से प्रचलित सामान्य नामों से कुछ हटकर निराला हो। युनिक हो। यह निरालेपन की सनक निरर्थक नामों की बाढ़ ला रही है। भारतीय या हिन्दू नामों की कई पुस्तकों में नामों को रोमन लिपि में लिखा गया है।
परिशुद्ध स्वानिकी या ध्वन्यात्मकता का जहां तक प्रश्न है रोमन लिपि उच्चारण की दृष्टि से मजाकिया या हास्यजनक लिपियों में से एक है। एक लेखिका ने रोमन लिपि में लिखे नामों को देवनागरी में भी लिखा यह दर्शाते हुए कि शुद्ध उच्चारण देवनागरी में ही हो सकते है। उन्होंने हिन्दी नामों को देवनागरी लिपि में और ज्यादा अटपटे वर्णों में लिख दिया है उदाहरण उसी पुस्तिका से
Vasavaj (m) - Son of lord Indra- वस्वाज
Viksah (f) knowledge, intelligent- विक्साह
Kanyal (f) girl कन्याल
Hemish (m) Lord of the Earth- हेमिष

पुस्तक 90 प्रतिशत से अधिक ऐसी ही रची गई है। पुस्तक के अनेक संस्करण छप गए और देश विदेश में बालक-बालिकाओं को निराले ‘युनिक' नाम दिये जा रहे हैं। ऐसी कई पुस्तकें बाजार में आ गई हैं। जिनमें नाम तो पहिले रोमन लिपि में लिखे हैं पर सही उच्चारण के लिये ध्वन्यात्मक वर्तनी चिन्हों का प्रयोग नहीं किया है। लेखिका ने अंग्रेजी अक्षरों का सामान्य रूप से हिन्दी उच्चारण करते हुए देवनागरी में नाम लिख दिया है। ऐसे नामकरण प्रशंसनीय नहीं हैं।

अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े हुए भारत के वासी और प्रवासीजन जिन्होंने अपने बालकों को सुन्दर सौम्य सार्थक नाम दिये हैं अनुकरणीय और प्रशंसनीय पालक है।
उनके बालकों के लिये यही आशीर्वाद उचित है.
हे बालकः (नाम) त्वमायुष्मान् वर्चस्वी तेजस्वी, प्रतापी, पुरूषार्थी, परोपकारी, श्रीमान सुनामा भूयाः ।
इसी आशीर्वाद की पात्रा बालिकाएं भी है।
हे बालिके (नाम) त्वमायुष्मती, वर्धस्विनी, तेजस्विनी, धर्मशीला, पुरूषार्थिनी,
प्रतापी, परोपकारिणी, श्रीमती, सुनाम्नीभूयाः ।

त्रिवेणी पौराणिक

Preface

What is a name? What is in a name? Does name have some significance? Why are people named? How should one named? What sort of names should be shunned? I have encountered these questions right from end of twentieth century till this date. The name defies definition. It is just a name; the prime signifier, it has been termed a mantra. Only through a name is god worshiped — नमन्त्येभिरीश्वरम् Fame, respect, renown, aesthetics, success, grace, pride, glory and affection are all bonded with the name. ‘नाम्नैव कीर्ति लभते मनुष्यः' It is only through the name that a person earns renown. A name is the smallest expression of a persona.

A name is not only necessary but essential for acquaintance and recognition. The name is first thing to be asked; by name alone do we learn Of a place and destination. 'Whom do you wish to meet’ looks for name of a person; 'what do you want' inquires about the object of desire.

The process of nomenclature is perpetual. To date, cities, towns, colonies, factories, market-places, buildings, ponds, gardens and even cattle, pets and birds are being named. A person is remembered by his name; the more powerful a person the greater power does his name wield. The name of Ram holds greater might than persona of Ram. "कहाँ कहाँ लगि नाम बढ़ाई, रामु न सकहि नाम गुन गाई।

The name and the named are indeed one. Form and name both manifest the divine essence. The name incarnates the form and the form defies comprehension lacking name. Name is best witness situated on the edge of tangible and the unknown. It interprets reality of both with great acumen.

Names, especially of human beings, are universal. They are unique, subjective and historic in entity. Nomenclature is based on convenience as well as affection. One forms a bond with one's name - of love, pride and belonging; and thus suppresses voice of reason. Despite the presence of such questions as why was the name so, when was it named thus and by whom, in practice it is accepted.

Little attention is paid to linguistic import of a name. Often, people do not know the meaning of their names and guess wildly about its possible connotations. One does not name oneself; it is parents, guardians or well- wishers who are responsible for the appellation. In response to certain facts or conditions and based on their knowledge and aesthetic sensibilities, the persons concerned name the newborn.

Even while a name comes from one particular language, it is used by people speaking other languages. Pronunciation quirks may result in altered articulation of the name. It is advisable to maintain parity in written and spoken form of the name. Using name with native accuracy poses problem to other language practitioners. For compatibility and ease they may often change the original form.

One feels hurt when the name spoken or written erroneously. A name demands respect in usage. This is possible only when the speaker is conversant with enunciation rules of language in question. Correct pronunciation of name should always be aimed at. Linguistic experts employ diacritical marks but not everyone can decipher them. Names are open to be used by all. People speak in their regular fashion and are apt to change the name. The rounded stress in Bangla, changes unstressed Anil to O'Neal.

Without first-hand knowledge of original language, a reader may mispronounce or a listener may misspell the name. We received invitation for a ceremony for a child's name-day. On a majestic plaque the name was beautifully engraved in Devanagari - Kanava. I asked the proud grandfather what does, this word mean. He admitted that it was selected by his daughter from a compendium of names. The word in the book carried its spelling in Roman alphabet. While this does not affect English language, loss of original meaning is regrettable. The grace of ancient Indian sage Maharishi Kanva is ludicrously lost in transcription.

Unfamiliarity with naming convention renders several names meaningless to us. Names are signifiers that can't be translated or interpreted freely. My name Triveni, would be known exactly thus not only in Marathi, Bangla or Tamil but in all languages of the world. Names retain their entity during translation to other languages. Still, for geographic and historical reasons change occurs in writing, speaking, spelling enunciating and comprehending the name in question. Even when its import from other language is accepted, its application, diction etcetera adhere to main language.

Generally, naming of the newborn involves aesthetic sensibility, knowledge, belief, grace and dignity of concerned elders who may enjoy debating and settling on final selection. Sometimes two or three names be given to the child to make peace. Name is intellectual contribution of a generation to the next. Meaning is the essence of word and therefore a name must carry sense relating to native culture and thought process. The meaning sans context appears puerile. It is a complex cultural act to grant meaning and relevance to a name. It is a linguistic exercise to comprehend the meaning of one's name. It is pathway to understand one's heritage. On this very basis, does a person living in faraway land feels connected to his own. The period of an awaited birth encourages people to return to their roots. Through the wealth of one's heritage, does one invest in strong roots for his child. The cultural or national inclination reflects in choice of language for the name.

For Indians Sanskrit is the natural choice, not because of political or governmental agenda but for its innate grandeur and authentic cultural concerns. Due its geographic spread across India, Sanskrit is invariably used in Hindu name-convention. It has effectively united languages of north and south. In Telagu, Kannada and Malayalam Sanskrit words are present in strength matching that in northern languages. There are ample Sanskrit word groups in Tamil.

The name of Hindu deities come from Sanskrit roots. In turn they offer the base for human names. A large percentage of contemporary names are based on gods and goddesses. Naming the divine is zenith of our intellect. It is our cultural glory, the philosophy of life and culmination of allegorical intuition into historical manifestation. As per its essence, the name of deity gained metaphorical dimensions. With ever-growing symbolism, the synonyms gained ground of their own and were recognized in the language. Words initially used as adjectives or signifier, themselves became the signified. Names of deities in contemporary languages like Punjabi, Hindi, Oriya, Bangla, Marathi, Gujrati, which are derived from Aryan family, come straight from Sanskrit. Through the names of deities all these languages constitute a family.

The first names to gain historic recognition included those of gods, natural powers that were treated as divine and those who resided on earth and with gods. The history of names of gods is our religious history. Based on names, their metaphorical growth we may assess the direction in which our religion advanced. Etymology of divine names abound. There are narratives concerning nomenclature. Their significance has been evaluated at length. A correspondence with language has been accomplished. In contemplation, devotion and ritual worship, the significance of deity's name comes to fore. In extension of god-names the symbolic proclivity can be envisaged. Due such penchant, these names form the resilient pegs of our cultural lattice. Our values and belief are cherished by these names and on their basis we can probe the deeper truths.

Naming human beings after deities did not endow them with divine powers; but, the parents believed that by taking name of their progeny, they would be remembering the deity automatically. Of the umpteen synonyms for their core deity, they would select one that appealed to name the child. A Puran narrative describes how villainous Ajamil in death trhroes, called out to his son, Narayan and the god Narayan 'Vishnu' appeared with his air-ship Viman and escorted the soul to his abode, Vaikunth. It was the might of name that even a sinner like Ajamil could land a berth in paradise.

‘अपतु अजामिल गजु गनिकाउ भये मुक्त हरि नाम प्रभाउ’

The gods were named by suffixing words denoting husband - Pati, Kant, Nath, Ish, Swami - after the name of their wives - e.g., Ramapati, Ramakant, Ramanath, Ramesh, Radhaswami. Names of divine couples were conjoined to form a new name - e.g., Umashankar, Sitaram, Laksmishanarayan etcetra became popular for male progeny. Names of two male deities joined together were used for male child - e.g., Ramnarayan, Shivram, Harihar, Shivnarayan etcetra. The suffix Nandan was added to divine mother's name to form a name for son evincing motherly love - e.g. Devakinandan, Girijanandan, Sumitranandan. This suffix could also be used with holy father - eg, Raghunandan, Dashrathnandan, Shivnandan etcetera.

Prime source for Indian names are Ramayan, Mahabharat, Puran, Jatak tales, historical texts and legends. History and geography merge together when it comes to mythological names. Culture, history and geography of the land are reflected through the names. Names span across time and space. In nomenclature of Indian pilgrimages evince the geographical spread and linguistic changes. They work towards creating a geo-physical awareness and give rise to patriotic feelings.

Several generations of girls have been named after holy cities - Ayodhya, Kashi, Dwarika, Mathura, Avanti. Pilgrimage towns like Jagannath, Vrindavan, Prayag, Badrinath, Omkareshwar, Rameshwar have been considered suitable names for boys, Esteem granted to rivers results in naming girls after them - Ganga, Yamuna, Saraswati, Godavari, Krishna, Kaveri, Narmada, Sindhu.

Appellations do not arise from geographical roots in case of rivers and mountains; they well might come from names of human beings of an earlier era. Parvataraj, father of Parvati, comes not from stony mound but from a Daksh Prajapati scion who was king of Himanchal. Mother of Bhishm and wife to Shantanu, Ganga was not river as indicated in some Mahabharat interpretations. She was a princess. The influence of human names on some physical places initiates the circular loop - does river/ mountain come before the human character or vice-versa?

A river in Bengal, Meghna becomes name of a girl in Indore. Her mother, ignorant of its meaning admits that the name has been suggested by her uncle. The uncle was influenced by stars of silver-screen, Rakhi and Gulzar who gve this name to their daughter. That this name may be a realistic reference to the nature of river, indicating sudden swell during rains may escape all concerned. New contexts add to and often replace earlier ones. There is no limit to deviation from the original.

New names get constructed out of innovation experimentation. Couple Devendra and Chandraprabha may decide to blend their persona in the name of their daughter. Taking relevant parts from both their names, they join prefix Dev to suffix Prabha and come up with Devprabha. Uniting syllables may lead to daughter of Varun and Sudha being called Vasudha. Anandilal Sharma and Kanta settle on Akash for the name of their first-born.

We nick-named our grandson Neepu choosing syllables from the names of our daughter-in-law and son - Nee from Neeraja and Pu from Apurva. The grand-daughter received her nick-name following this formula - Ani; A from Apurva and Ni from Neeraja. Drawing on this root she was named Anvita.

In selecting names we may extend reliance on mother-tongue to include foreign languages too. From the reign of Qutub-Ud-Din Aibak to Bahadur Shah Zafar - a period spanning seven centuries - Turkish, Persian, Arabic words seeped into Indian names and are still in use. Among contemporary names the bouquet of Chirag, Roshan, Roshani, Raunak, Gulab, Mahak, Khushbu, Mina warm the hearts of proud parents. Indian culture is based on principles of tolerance, acceptance and brotherly love. Rising above the pettiness of mine and yours, it encapsulates the whole world as one family. Although Indian deities like Lakshmi, Saraswati may fail to penetrate consciousness of other lands, the wealth of Arab - Daulat - has been accepted as daughter here. She leads a life of dignity as Daulatbai in India. Moreover, in conjunction with name of Indian god, she changes gender and becomes Daulatram. Narayan unites with Iqbal in Iqbalnarayan and glorious Chandra drops the final half-syllable to accept austere life style of ascetic Fakirchand. Hindus, especially the urbane Kayasths have espoused this tradition of combining Arabic Persian roots with Sanskrit ones to form such names as Rambaksh, Prem Adeeb, Satsh Bahadur, Mumtaj Shanti and so on. Such nomenclature offers a peep into socio-cultural and political conditions of a period or region.

Presence of British in India for five centuries, their two-century long rule and its supreme position in a globalized world has brought English to remotest village in some or their form. Sometimes with studied openness, often in ignorance and imitation, we have opted for Dora, Dolly, Rosa, Dimple, Simple, Pinky, Baby, Bobby, Natasha to name girls and Lucky, Rocky, Sunny, Hunny, Happy as nick-names and even formal first-name for boys.

In accordance with their knowledge, concerns, conditions and inclination, parents or patriarchs select terms fro the physical or metaphysical world for the object of their affection. Acommon noun becomes proper noun - Sagar a boy and Sarita a girl. In prophesying desired character of the child, abstract nouns enveloping the haze of intangible, concretize into proper nouns: Mukti, Shakti, Shanti, Ishita, Mahima, Garima, Siddhi grace the material world as daughters, mothers and citizens.

From the treasure trove of nature's bounty on land, sea and sky numerous names for human beings may be derived. The week-days serve for some - Ravikumar, Somnath, Mangalsingh, Budhiram, Guruprasad. Seasons contribute to human appeallations - Varsha, Sharad, Basant, Hemant, Shishir. Place of birth may also be celebrated eternally - Indorilal, Mathuraprasad, Gayaram, Banarasidas. Dates from Hindu calendar or Panchang too find their place - Teejan bai, Poonam, Purnima, Gyarasibai from eleventh day or Ekadashi, Padma, Rama, Prabodhini, Achala, Apara, vijaya etcetera. Names of months too serve as source — Kartik, Ashwin, Shravan, Shravani, Savan kumar, Phalguni. Time of the day remains frozen in a name - Usha, Prabhat, Prabha, Sandhya, Nisha, Rajani.

Flora and fauna offer a great selection of qualitative epithets that human beings choose to celebrate in their progeny. The flower Shirish represents delicacy, the lotus, Kamal, represents peace; ultimate purity is personified through Pankaj that has the ability to cleanse the muddy roots of its birthplace. Enveloping all at once colour, fragrance, grace and elation the flowery names of Juhi, Champa, Chameli, Rajnigandha, Madhavi, Madhumalati stamp the girls with benign vitality. Tulsi characterizes the classic ideal of Indian womanhood.

To describe the numerous aspects of female beauty poets resort to animal kingdom. Thus large innocent eyes like a doe form the name Mriganayani. A male with soft and large eyelids similar to lotus leaf would be called Kamalnayan or Rajeevlochan. Bight-eyed like a fish, a vivacious lady may be known as Meenakshi; one with melodious throat a Kokila.

Some parents name their children in a set, by using the same suffix in all their names - Ramlal, Shyamlal, Ratanlal, Mohanlal; Ramprasad, Shivprasad, Guruprasad; Ramashankar, Jayshankar, Manishankar; Omdutt, Devdutt, Yagyadutt. Musicality in names of girls results in: Amla, Vimla, Kamla; Meeta, Sita, Geeta; Charulata,Tarulata; Devpriya, Manupriya, Kanupriya.

Routine activities may also be connectives - Akshat is brother to Roli or Kumkum; Ish to Aradhana or Archana; Jyoti or Vartika's brother well might be Deepak. Sometimes this affinity also serves in finalizing match. So girl Maya may find a Mahamaya for husband or the perfect Manisha may be searched as bride for Manish.

Those with idealistic orientation may settle for deeper human qualities and endow their children with suh epithets as Pragya, Medha, Vivek, Mridul, Sushila. More animated and emotive parents may consider their children an adornment in their lives. They would look out for decorative, ornamental names like Nupur, Mala, Kankana, Karnika, Kundal, Bhushan, Bindiya, Chandra or Gajra. Still more doting ones who consider their children a treasure go for precious stones and metals - Sona, Kanchan, Rupa, Rajat, Manik, Heera, Moti, Panna. Music aethetes are prone to name their children Veena, Shruti, Ragini, Poorvi, Sangeeta, Venu, Kalyan, Bhairav, Rishabh, Gandhari, Pancham etcetra. The literary taste leads some to commemorate literatures or their writings in names of their children - Premchand, Ravindra, Vyas, Geetanjali, Kamayani. The characters may also be remembered - Chitralekha, Kadambari, Dushyant, Shakuntala.

Names that glitter on the glamorous silver-sreens make their way to shanties of the poor. So sisters may be called Nutan, Tanuja or Lata, Asha. The sole source of glory to alleviate the monotonous misery and hopeless hardship of their lives are reminders of the beautiful and bold of dream-world cinema. As if the presence of a Dey, Dilip or Rajkumar might spell magical turnaround of their life sentence in penury and want. As if the tinkle of a Sharmila, Madhubala, Aishwarya or Mallika would erase all harshness and bring solace to ears deprived of a kind word. In the names of their children they sow seeds of hope and happiness.

More fortunate parents placate their bland taste-buds by naming children after sweets - Mishti, Barfi, Rabdi, Chandrakali, Imarati or Mevalal, Ghevarmal, Ladooram, Barfilal.

Is market-places, buildings, ponds, gardens and even cattle, pets and birds are being named. A person is remembered by his name; the more powerful a person the greater power does his name wield. The name of Ram holds greater might than persona of Ram.

Where parents hold knowledge and studiousness in esteem, they coin names correctly adding prefix or suffix to cherished root. The prefix ‘Pra’ yields such names as Pramod, Pradeep or Prashant. Adding 'Su' before the root gives, Sumit, Sushila, Sumati or Sukanya. The principles of Sanskrit grammar are adhered to by elite and erudite. Simple people merely stress the final syllable to change masculine to feminine. So boys Amal, Vimal, Kamal, Saral with just a pull change gender to corresponding Amala,Vimala, Kamala or Sarala.

Partial English Translation and adaptation by
Rajiv Trivedi and Apoorva Pauranik